उस दिव्य आदित्य के कड़ लेकर
सोखता है वह जल कि बूंदों को
अम्बर से बनकर एक बीज
धरा के सीने में सो जाता है /
पल्वित हो, शोर मचाता निकल
पुलकित करता सबके मन को
सुमन नया फुलवारी में खिलता
रचने-गड़ने इस दुनिया को /
सागर कि अनगित लहरों से
जुड़ती जब एक है नई लहर
तूफानों से टकराने को
आती है एक घुंघराली वो नई तरंग /
कितनो से वह जुड़ जाएगा
कितनी लहरे जन्म दे जाएगा
इतिहास के पन्नो पर कभी
विदित अविदित उसकी गाथा /
चला जायेगा एक दिन
उसी आदित्य व्योम पवन में
कुछ अवशेष धरा को देकर
सागर में फिर खो जायेगा //